ये हफ्ता यूपी की राजनीति में कुछ बड़े बदलाव के संकेत लेकर आया। दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी ने यूपी में 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। वहीं, बिहार विधानसभा चुनाव में 5 सीटें जीतकर सत्ता के समीकरण बदलने वाले असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी भी संकल्प मोर्चा में शामिल हो गई। यह मोर्चा राज्य के अलग-अलग जिलों में सक्रिय कई छोटी पार्टियों ने मिलकर बनाया है।
लेकिन, इन दोनों राजनीतिक डेवलपमेंट से यूपी की राजनीति पर क्या असर पड़ने वाला है? खुद को दिल्ली, पंजाब और गोवा जैसे छोटे राज्यों तक सीमित कर चुके केजरीवाल का देश के सबसे बड़े राज्य में एंट्री का क्या मतलब है? ओवैसी का गठबंधन किसे और कितना नुकसान पहुंचा सकता है? बिहार में ओवैसी के साथ रहीं मायावती क्या यहां भी उनके साथ जाएंगी? शिवपाल यादव की पार्टी किसके साथ कर सकती है गठबंधन? आइये जानते हैं…
केजरीवाल की एंट्री का क्या मतलब?
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2014 के लोकसभा चुनाव में केजरीवाल की पार्टी ने उत्तर प्रदेश की 80 में से 76 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। देश की 432 सीटों पर पार्टी ने चुनाव लड़ा। लेकिन, यूपी में केजरीवाल की सीट समेत देश में सिर्फ 19 सीटों पर ही पार्टी जमानत बचा पाई। यूपी में 75 कैंडिडेट्स की जमानत जब्त हो गई।
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इसके बाद केजरीवाल और उनकी पार्टी ने अपना फोकस दिल्ली, पंजाब, गोवा जैसे राज्यों पर कर लिया। 6 साल बाद एक बार फिर केजरीवाल की पार्टी यूपी में बड़े लेवल पर सक्रिय हो रही है।
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सीनियर जर्नलिस्ट सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि यूपी में आम आदमी पार्टी खबरों में तो बनी है, लेकिन जमीन पर नहीं है। इसके लिए समय, संसाधन और मैन पॉवर चाहिए। ये तीनों ही आम आदमी पार्टी के पास नहीं हैं। आम आदमी पार्टी को कुछ शहरी इलाकों में सपोर्ट मिल सकता है, लेकिन उसका इतना बड़ा होना मुश्किल है जो उसे सीट जिता सके।
दिल्ली में कामयाबी मिल सकती है तो यूपी में क्या मुश्किल?
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सिद्दार्थ कलहंस कहते हैं कि आप की पूरी लीडरशिप दिल्ली में सक्रिय है। पार्टी के नेता यहां लंबे समय से काम कर रहे हैं। जबकि, यूपी में पार्टी की ओर से सिर्फ संजय सिंह सक्रिय हैं। वे भी ज्यादातर दिल्ली में रहते हैं।
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दूसरी वजह दिल्ली एक छोटा राज्य है और ज्यादातर इलाका शहरी है। जबकि यूपी दिल्ली की तुलना में करीब 11 गुना बड़ा है। यहां की 72% आबादी गांवों में रहती है। आप को जीतने के लिए इन इलाकों तक पहुंच बनानी होगी, जो फिलहाल नहीं है।
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तीसरी और सबसे अहम बात यूपी की राजनीति में जाति का फैक्टर बहुत बड़ा रोल प्ले करता है। सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि यूपी में आप के पास लीडरशिप के नाम पर सिर्फ ठाकुर नेता संजय सिंह हैं। जब तक यूपी में उनके पास क्षेत्रवार, जातिवार नेता नहीं होंगे तब तक सफलता दूर है। इन्हें दलित, यादव, कुर्मी, मुस्लिम फेस इत्यादि चाहिए होंगे जिनकी अपने इलाके में पकड़ हो।
केजरीवाल की पार्टी वोट लेने में कामयाब हुई तो किसका नुकसान होगा?
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दिल्ली में केजरीवाल की पार्टी ने गरीब और झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले वोटरों में पकड़ बनाई है। केजरीवाल जिस तरह की पॉलिटिक्स करते हैं उसमें यूपी में उनके सफल होने पर ज्यादा नुकसान सपा, बसपा और कांग्रेस का होगा।
ओवैसी का गठबंधन कितना मजबूत?
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ओवैसी और उनकी पार्टी का एजेंडा क्लियर है। जिस तरह उन्होंने बिहार की मुस्लिम बहुल सीटों पर कैंडिडेट उतारे थे, उसी तरह यूपी में भी होने वाला है। उनके गठबंधन में जो पार्टियां हैं, भले उनका ज्यादा असर ना हो, लेकिन ओवैसी की पार्टी की तरफ मुस्लिम वोटर्स का रुझान लगातार बढ़ रहा है। महाराष्ट्र हो या बिहार दोनों इसके उदाहरण हैं।
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वहीं, गठबंधन को लेकर CSDS के निदेशक और कानपुर यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर एके वर्मा कहते हैं कि इस गठबंधन की वजह से भाजपा को थोड़ा-बहुत नुकसान हो सकता है। क्योंकि ऐसी पार्टियों के मार्जिनल वोट्स होते हैं। ऐसे में वह जब किसी बड़े दल के साथ लड़ते हैं, तो एक दो सीट निकल जाती है। जब ये अकेले लड़ते हैं तो सीट तो नहीं निकलती, लेकिन जहां हजार-पांच सौ वोट का अंतर आता है, वहां ये नुकसान करते हैं। इसमें बड़ी पार्टी लूज कर जाती है।
तो क्या सपा को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे ओवैसी?
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ओवैसी का गठबंधन भले थोड़ा-बहुत भाजपा को नुकसान पहुंचाए, लेकिन ओवैसी सबसे ज्यादा नुकसान सपा को ही पहुंचाएंगे। इसका कारण है कि सपा का मुस्लिम वोट बैंक काफी मजबूत है। अभी भी मुसलमान सपा को अपनी पार्टी मानता है।
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ओवैसी की पॉलिटिक्स है कि वह मुस्लिम बहुल सीटों पर जाएं और सीट जीतें। जो ट्रेंड है उससे तय है कि ओवैसी जहां कैंडिडेट खड़ा करेंगे, वहां वह मुस्लिम कैंडिडेट ही खड़ा करेंगे। जहां भी 35% से ज्यादा मुस्लिम वोटर हैं, वहां हो सकता है कि मुस्लिम वोटर उनसे प्रभावित हो और उन्हें वोट करे।
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इस वक्त दो बदलाव बहुत जरूरी तौर पर देखे जा रहे हैं। एक तो ओवैसी का बिहार में 5 सीटें जीतना और दूसरा अखिलेश का जमीनी राजनीति से गायब होकर सिर्फ सोशल मीडिया तक सिमट जाना। इससे मुस्लिम वोटर का समाजवादी पार्टी के प्रति जो उत्साह था, उसमें कमी आई है। वह चाहते जरूर हैं कि सपा आए, लेकिन कुछ मुस्लिम वोटर यह भी सोचते हैं कि चलो सपा सत्ता में नहीं आ रही है, तो कुछ मुस्लिम विधायक ही आ जाएं। यह सोच ओवैसी को फायदा पहुंचा सकती है और सपा को नुकसान।
क्या मायावती भी ओवैसी के गठबंधन का हिस्सा बन सकती हैं?
सीनियर जर्नलिस्ट अम्बरीष कुमार कहते हैं कि बिहार में मायावती का कोई जनाधार नहीं है। जबकि, यूपी में बसपा का अपना कोर वोट बैंक है। इसलिए अभी यही दिख रहा है कि बसपा यूपी में कोई गठबंधन नहीं करेगी वह अपने दम पर लड़ेगी।
शिवपाल यादव किस तरफ जाएंगे?
सीनियर जर्नलिस्ट रंजीव कहते हैं कि शिवपाल यादव को अखिलेश यादव ने आमंत्रण दिया था लेकिन शिवपाल ने ओवैसी को गठबंधन का ऑफर दे दिया। दरअसल, शिवपाल जाना सपा के साथ ही चाहते हैं, लेकिन वे सीटों की बारगेनिंग करना चाहते हैं। शिवपाल के साथ जो कैडर है, वह भी अपनी पॉलिटिकल पोजिशनिंग बनाए रखना चाहता है। अगर शिवपाल इस तरह से नहीं करेंगे, तो शिवपाल के साथ जुड़े क्षत्रप उन्हें छोड़कर चले जाएंगे।
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